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शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर पौधा रोपण

सांपला:- बाबा कालिदास महाराज धाम सांपला मे गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व रविन्द्र कौशिक, प्रदेश अध्यक्ष , भगवान परशुराम समाज उत्थान सभा (रजि.) हरियाणा व डॉ. गोपाल कृष्ण द्वारा पौधा रोपण(त्रिवेणी) किया गया ! इस दिन गुरु के आशीर्वाद से जो उर्जा मिलती है वो बहुत ही मूल्यवान होती है इस दिन हम सबको पौधा अवश्य लगाना चाहिए व दूसरों को भी इस कार्य हेतु प्रेरित करना चाहिए ! आइये जानते है क्या है गुरु पूर्णिमा और इसका हमारे जीवन में क्या महत्व है !
षाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। 
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है।
"अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया,चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नमः "
गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी।  बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। 
भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मन्दिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

लालच ने सिखाया सबक

एक गांव में दो भाई रहते थे। बड़ा भाई अमीर और घमंडी था। जबकि छोटा भाई मेहनती, मगर गरीब था। लेकिन, बड़े भाई को उस पर बिल्कुल दया नहीं आती थी। एक बार दीपावली के दिन सभी के घर में रौनक थी। लेकिन छोटे भाई के पास कुछ नहीं था। इसलिए वह कुछ पैसे कमाने गांव के बाजार में जा रहा था। रास्ते में उसे एक बूढ़ा आदमी मिला और उसने पूछा-′अरे भाई! आज तो दीपावली है, फिर तुम इतने उदास क्यों हो?′ छोटा भाई बोला किस बात की दीपावली साहेब, मेरे पास तो एक पैसा भी नहीं है? बूढ़े आदमी ने उसे मालपुआ देते हुए कहा कि इसे ले जाओ और जंगल में एक गुफा है, जहां तीन चोर रहते हैं। उन चोरों को ये मालपुआ देना और उनसे जादुई चक्की मांगना छोटे भाई ने वैसा ही किया और जादुई चक्की लेकर अपने घर लौट आया। छोटे भाई ने चक्की से दाल निकालने को कहा, तो चक्की से दाल निकलने लगी। इसी तरह उसने जो कुछ भी चक्की से कहा चक्की उसे दे देती थी और वह उसे बाजार में बेचकर अमीर हो गया। बड़ा भाई इस बात को देखकर जलने लगा और उसने वह चक्की चुरा ली। चक्की चुराकर वह अपनी पत्नी के साथ रात को ही गांव छोड़कर निकल गया। रास्ते में नाव से जाते हुए उसकी पत्नी ने पूछा कि आप अपनी सारी धन-दौलत छोड़कर भला क्‍यों जा रहे हैं? इस पर बड़े भाई ने कहा कि यह जादुई चक्की है, इससे जो कहो, वो मिलता है। बड़े भाई ने चक्की से नमक निकालने को कहा, तो लगातार नमक निकलने लगा। लेकिन, बड़े भाई को चक्की बंद करने का तरीका नहीं मालूम था। ऐसे में नाव नमक के भार से डूब गई और दोनों पति-पत्नी भी पानी में डूब गए । लालच बुरी बला है, किसी ने सही कहा है।